सर सैयद अहमद खां व मिर्ज़ा ग़ालिब


“हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना कि यूं होता तो क्या होता

ग़ालिब को हम उर्दू व फ़ारसी के शायर की हैसियत से जानते हैं वह ग़ज़ल के शहंशाह थे हम यह जानते हैं कि वह सूफीवाद के माहिर थे हम यह भी जानते हैं कि वह एक लापरवाह व मस्त मौला आदमी थे जिन के अंदर फक्र व बेनियाज़ी थी भविष्य की उन्हें कोई खास चिंता नहीं थी खुद उन्होंने कहा है कि
” क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां
रंग लाए गी हमारी फाका मस्ती एक दिन “

परंतु हम में से बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्हें अपने भविष्य की चिंता हो न हो पर हिंदुस्तानी मुसलमानों के भविष्य की चिंता थी वह चाहते थे कि मुसलमान अब माडर्न एजुकेशन में आगे बढ़ें उन्होंने भांप लिया था कि साइंस पढ़े बगैर मुसलमान तरक्की नहीं कर सकते उन्हें अंदाज़ा था कि अब हिन्दुस्तान में फ़ारसी का भविष्य नहीं है इस लिए मुसलमानों को अंग्रेजी व उर्दू मीडियम में तालीम हासिल करनी होगी

पर अपनी इस सोच को अमली जामा पहनाना ग़ालिब के बस में न था ग़ालिब कुछ कर नहीं सकते थे काम करना ग़ालिब ने सीखा ही नहीं था उन्होंने इस के लिए सर सैयद अहमद खां को तैयार किया

ग़ालिब और सर सैयद अहमद खां के बीच परिवारिक संबंध थे ग़ालिब सर सैयद से बीस साल बड़े थे सर सैयद उन्हें चचा ग़ालिब कहते थे फिर सर सैयद से होते हुए वह अलीगढ़ वालों के चचा बन गए और आज जगत चचा हैं हम सब उन्हें चचा ग़ालिब कहते हैं

ग़ालिब सर सैयद अहमद खां से मुसलमानों की शिक्षा पर काम लेना चाहते थे और सर सैयद मुसलमानों के इतिहास पर मेहनत कर रहे थे अपनी किताब آثار الصنادید लिख रहे थे ऐसे में जब उनकी सर सैयद अहमद खां से मुलाकात होती थी उन्हें टोकते थे उनसे साइंस व माडर्न एजुकेशन पर काम करने को कहते थे

सर सैयद की किताब पूरी हुई फिर उन्होंने दूसरी किताब आईने अकबरी पर काम शुरू कर दिया यह अकबर के दरबारी अबुल फजल की लिखी हुई थी सर सैयद ने उसे दोबारा छापना चाहा और इसके लिए वह 1855 में मिर्जा गालिब से मिले उनसे फरमाइश की कि इस किताब के संबंध में कुछ अशआर लिखिए मिर्ज़ा ग़ालिब राज़ी हो गए और उन्होंने फारसी में 38 शेर लिखे जिनमें सर सैयद को मुर्दा परस्त तक कह दिया ग़ालिब ने लिखा कि जिंदा लोगों पर काम करना चाहिए और यह मुर्दों को महान बनाने में लगे हैं यह अकबर के आइन पर लिख रहे हैं जबकि अंग्रेजों के आइन व संविधान पर काम करना था इन अशआर को लेकर सर सैयद अहमद खां और ग़ालिब में नाराजगी भी हो गई कई वर्षों तक नाराजगी रही फिर सर सैयद ने पहल करके उन्हें मनाया

1857 की पहली जंगे आज़ादी में मुसलमानों की जो बरबादी हुई उसे देख कर सर सैयद ने माडर्न एजुकेशन पर काम शुरू किया 1859 में मुरादाबाद में गुलशन स्कूल के नाम से एक स्कूल खोला फिर 1861 में गाजीपुर में विक्टोरिया सकूल शुरू किया और 1863 में साइंस सोसायटी की स्थापना की

मुसलमानो की शिक्षा के लिए सर सैयद अहमद खां ने जो कुछ किया वह जग जाहिर है पर इस छेत्र में मिर्ज़ा ग़ालिब का क्या योगदान या विचार था इसकी जानकारी कम लोगों को है

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